गुप्ता जी के बेटे का कहना है कि उनका लोकतंत्र पर से यकीन सन 92 में ही उठ गया था 🙄, जब हमारी स्कूल की छुट्टियां हुई और रात को खाने की मेज़ पर पापा ने पूछा – “बताओ बच्चों छुट्टियों में दादा के घर जाना है या नाना के ?”सब बच्चों ने खुशी से हमआवाज़ होकर नारा लगाया – “दादा के …”लेकिन अकेली मम्मी ने कहा कि ‘नाना के…।’बहुमत चूंकि दादा के हक़ में था, लिहाज़ा मम्मी का मत हार गया और पापा ने बच्चों के हक़ में फैसला सुना दिया, और हम दादा के घर जाने की खुशी दिल में दबा कर सो गए ..।😴अगली सुबह मम्मी 🙆 ने तौलिए से गीले बाल सुखाते हुए मुस्कुरा कर कहा- “सब बच्चे जल्दी जल्दी कपड़े बदल लो हम नाना के घर जा रहे हैं…।”गुप्ता जी के लड़के ने हैरत से मुँह फाड़ के पापा की तरफ देखा, तो वो नज़रें चुरा कर अख़बार पढ़ने की अदाकारी करने लगे…बस वो उसी वक़्त समझ गया था कि लोकतंत्र में फैसले आवाम की उमंगों के मुताबिक नहीं, बल्कि बन्द कमरों में उस वक़्त होते हैं, जब आवाम सो रही होती है.